कपास की पैदावार नगदी फसल के रूप में की जाती है. कपास को बाज़ार में बेचने पर किसानों की अच्छी कमाई हो जाती है. जिस कारण उनकी आर्थिक हालत में काफी सुधर आता है.आज इसकी पैदावार भारत के ज्यादातर हिस्सों में की जा रही है. कपास की आज कई तरह की प्रजातियाँ बाज़ार में पाई जाती हैं. जिनसे अधिक मात्रा में पैदावार प्राप्त होती है. सबसे लम्बे रेशों वाली कपास को सबसे सर्वोतम माना जाता है. जिसकी पैदावार तटीय इलाकों में ज्यादा होती है.
कपास की खेती सबसे ज्यादा मेहनत वाली खेती है. इसको खेत में लगाने से लेकर बेचने तक काफी मेहनत करनी पड़ती है. कपास का इस्तेमाल कपड़े बनाने में सबसे ज्यादा किया जाता है. इसकी रूई से बीजों को साफ़ कर रुई का इस्तेमाल कपड़ों के रेशे बनाने में करते हैं. जबकि इसके बीज से तेल निकला जाता है. और तेल निकालने के बाद बाकी बचे भाग का इस्तेमाल पशुओं के खाने के रूप में लिया जाता है.
कपास की खेती के लिए किसी ख़ास जलवायु की जरूरत नही होती. आज कपास की कई तरह की किस्में आ चुकी हैं. जिस कारण इसकी खेती अब हर जगह संभव हो रही है. कपास को सफ़ेद सोना भी कहा जाता है. कपास की खेती की ज्यादा सिंचाई की जरूरत नही होती. इस कारण किसान भाई इसे बारिश के मौसम को देखकर असिंचित जगहों पर भी उगा रहे हैं.
अगर आप भी इसकी खेती करना चाह रहे हैं तो आज हम आपको इसके बारें में बताने वाले हैं.
उपयुक्त मिट्टी : कपास की खेती के लिए बलुई दोमट मिट्टी और काली मिट्टी को सबसे उपयुक्त माना जाता है. इस तरह की मिट्टी में कपास की पैदावार ज्यादा होती है. लेकिन आज कई तरह की संकर किस्में बाज़ार में आ चुकी हैं. जिस कारण आज कपास को पहाड़ी और रेतीली जगहों पर भी आसानी से उगाया जा रहा है. इसके लिए जमीन का पी.एच. मान 5.5 से 6 तक होना चाहिए. कपास की खेती को पानी की कम जरूरत होती है. इस कारण इसकी फसल अच्छी जल निकासी वाली मिट्टी में की जानी चाहिए.
जलवायु और तापमान: कपास की खेती के लिए कोई ख़ास जलवायु की जरूरत नही होती है. लेकिन जब कपास के पौधों पर फल लगने का टाइम आता है उस वक्त इसे सर्दी में पड़ने वाले पाले से नुक्सान होता है. और जब इसके टिंडे खिलते हैं उस टाइम तेज़ चमक वाली धूप की जरूरत होती है.
कपास की खेती के लिए तापमान की जरूरत होती है. कपास के बीज को खेत में लगाने के बाद अंकुरित होने तक तापमान 20 डिग्री तक होना चाहिए. जिसके बाद इसके पौधे को बड़ा होने के लिए 25 से 30 डिग्री तक तापमान की जरूरत होती है. जबकि 40 डिग्री तापमान पर भी ये अच्छे से वृद्धि कर सकता है.
उन्नत किस्में : बाज़ार में कपास की कई उन्नत किस्में मौजूद है. लेकिन इन सभी किस्मों को इनकी श्रेणियों के हिसाब से अलग अलग रखा जाता है. इन किस्मों की श्रेणी का निर्धारण इसके रेशों के आधार पर किया जाता है. रेशों के आधार पर इन्हें तीन भागों में रखा गया है.
छोटे रेशों वाली कपास : इस श्रेणी की कपास के रेशों की लम्बाई 3.5 सेंटीमीटर से कम होता है. इस श्रेणी की किस्मों को उत्तर भारत में ज्यादा उगाया जाता है. जिनमें असम, हरियाणा, राजस्थान, त्रिपुरा, मणिपुर, आन्ध्र प्रदेश, पंजाब, उत्तर प्रदेश और मेघालय शामिल हैं. उत्पादन की दृष्टि से इस श्रेणी की कपास का उत्पादन कुल उत्पादन का 15% होता है.
मध्यम रेशों वाली कपास : इस श्रेणी के रेशों की लम्बाई 3.5 से 5 सेंटीमीटर तक पाई जाती है. इसे मिश्रित श्रेणी की कपास भी कहा जाता है. इस श्रेणी की किस्मों को भारत के लगभग सभी हिस्सों में उगाया जाता है. कुल उत्पादन में इसका सबसे ज्यादा 45% हिस्सा होता है.
बड़े रेशों वाली कपास : इस श्रेणी की कपास को सबसे उत्तम कपास माना जाता है. इसके रेशों की लम्बाई 5 सेंटीमीटर से ज्यादा होती है. इस श्रेणी की कपास का इस्तेमाल उच्च कोटि के कपड़ों को बनाने में किया जाता है. भारत में इस श्रेणी की किस्मों को दूसरे नंबर पर उगाया जाता है. कुल उत्पादन में इसका 40% हिस्सा होता है. इसकी खेती मुख्य रूप से तटीय हिस्सों में की जाती है. इस कारण इसे समुद्र द्वीपीय कपास भी कहा जाता है.
देशी प्रजाति : देशी प्रजाति की कपास को छोटे रेशों वाली कपास की श्रेणी में रखा गया है. इस प्रजाति की कपास की पैदावार 3 से 4 क्विंटल प्रति बीघा के हिसाब से होती है. लेकिन आज इस प्रजाति को काफी कम ही उगाया जाता है
किस्म | तैयार होने में लगा टाइम | पैदावार (क्विंटल/बीघा) |
लोहित | 170 से 180 दिन | 3.5 |
आर. जी. 8 | 175 से 180 दिन | 4 |
सी.ए.डी. 4 | 150 दिन तक | 4 |
एच डी-432 | 160 से 170 दिन | 4.5 |
एच डी-324 | 175 से 180 दिन | 4 |
एच डी-123 | 165 दिन तक | 3.5 – 4.5 |
नरमा (अमेरिकन) प्रजाति : अमेरिकन प्रजाति को भारत में बड़ी मात्रा में उगाया जाता है. इस प्रजाति की किस्मों से अधिक मात्रा में पैदावार मिलती है. इस किस्म की कपास को मध्यम श्रेणी की कपास में गिना जाता है.
किस्म | तैयार होने में लगा टाइम | पैदावार (क्विंटल/बीघा) |
एच.एस. 6 | 165 से 170 दिन तक | 5 |
विकास | 150 दिन तक | 5 – 6 |
आर.एस. 2013 | 160 से 165 दिन तक | 5 – 6 |
आर.एस. 810 | 170 दिन तक | 4.5 – 5 |
एच. 1117 | 175से 180 दिन तक | 5 – 6 |
एफ.846 | 175 से 180 दिन तक | 4 – 6 |
एच एच एच- 223 | 170 दिन तक | 6.5 |
बीकानेरी नरमा | 160 से 180 दिन तक | 6 |
एच- 1300 | 165 से 170 दिन तक | 6 – 7 |
संकर प्रजाति : इस प्रजाति की किस्मों को संकरण के माध्यम से बनाया गया. संकर प्रजाति की कई किस्में हैं जिनसे अच्छी पैदावार होती है. इसे दक्षिण भारत के साथ साथ उत्तर भारत में भी अब उगाया जाने लगा है.
किस्म | तैयार होने में लगा टाइम | पैदावार (क्विंटल/बीघा) |
एच एच एच 223 | 175 से 180 दिन तक | 5 – 8 |
ए ए एच-1 | 180 दिन से ज्यादा | 6 – 7 |
एच एच एच 287 | 160 से 170 दिन तक | 6 – 7 |
धनलक्ष्मी | 150 दिन से ज्यादा | 5 – 7 |
राज एच एच- 116 | 160 से 180 दिन तक | 6 |
संकर बीटी : आज सबसे ज्यादा बीटी प्रजाति की किस्मों को उगाया जा रहा है. जिनमें बीटी 2 को सबसे ज्यादा उगाया जा रहा है. बीटी प्रजाति की किस्मों को रोग प्रतिरोधक बनाया गया है. इसकी किस्मों को ज्यादा रोग नही लगता. आज बीटी प्रजाति की बहुत सारी किस्में मौजूद है. बीटी किस्मों के आगे बीजी- I और बीजी- II लिखा होता है.
किस्म | तैयार होने में लगा टाइम | पैदावार (क्विंटल/बीघा) |
रासी 773 | 170 दिन तक | 5 – 7 |
यू.एस. 51 | 160 से 180 दिन तक | 6 – 8 |
एम आर सी एच- 6304 बीजी- I | 180 दिन से ज्यादा | 5 – 6 |
तुलसी- 4 बी जी | 170 से 190 दिन तक | 6 – 8 |
एम आर सी- 7017 बीजी- II | 160 से 200 दिन तक | 5 – 8 |
खेत की जुताई : कपास की खेती करने के लिए पहले खेत को अच्छे से जुताई कर उसे कुछ दिन के लिए खुला छोड़ दे, जिसके बाद उसमें गोबर की खाद डाल दें. खाद डालने के बाद फिर से खेत में दो से तीन जुताई करें जिससे गोबर का खाद खेत में अच्छे से मिल जाए.
अगर टाइम पर बारिश नहीं हो तो खेत में पानी (पलेव) छोड़ देना चाहिए. पानी के सुखने के कुछ दिन बाद खेत की जुताई करें. ऐसा करने से खेत में पानी देने के बाद उगने वाली सभी खरपतवार ख़तम हो जाती है. जुताई करने के बाद खेत में एक बार फिर हल्का पानी दे. पानी देने के बाद खेत की फिर से जुताई करें.
इस बार जुताई करने के दौरान खेत की मिट्टी को समतल करने के लिए पाटा लगाये. जिससे जमीन समतल हो जाती है. जिसके बाद खेत में उर्वरक डालकर खेत की जुताई के साथ साथ खेत में पाटा लगा दें. उसके एक दिन बाद खेत में बीज को लगाया जाता है. कपास का बीज शाम के टाइम लगाने से फायदा मिलता है.
बीज लगाने का टाइम : कपास के बीज की आज कई प्रजातीय आ गई हैं जिन्हें अलग अलग टाइम पर आसानी से उगाया जा सकता है. जहाँ सिंचाई की उचित व्यवस्था हो वहां इसकी रुपाई अप्रैल के अंतिम सप्ताह और मई के शुरुआत में कभी भी कर सकते हैं. इससे फसल को पकने का टाइम उचित मिलता है.
जहाँ सिंचाई की उचित व्यवस्था नही हो उस जगह खेत की तैयार करके रखना चाहिए. पहली बारिश के बाद खेत में उर्वरक डालकर तुरंत इसकी रुपाई कर देनी चाहिए. जिससे पौधा आने वाली बारिश में जल्द बड़ा हो जाए.
बीज की रुपाई का तरीका : कपास की कई प्रजातियाँ हैं. इन सभी प्रजातियों को खेत में अलग अलग तरीके से उगाया जाता है. बीज को खेत में लगाने से पहले बीज को उपचारित कर लेना चाहिए. जिससे कीटों से लगने वाले रोग कम लगता है. इसके लिए बीज को कार्बोसल्फान या इमिडाक्लोप्रीड से उपचारित कर खेत में लगाना चाहिए.
देशी किस्म की कपास ज्यादा फैलाव नही लेती. जिस कारण इसे ज्यादा दूरी पर नही उगाया जाता है. देशी किस्म की कपास को खेत में लगाते टाइम दो कतारों के बीच 40 सेंटीमीटर तक की दूरी रखनी चाहिए. जबकि दो पौधों के बीच 30 से 35 सेंटीमीटर की दूरी रखनी चाहिए.
अमेरिकन किस्म के बीजों को खेत में उगाते टाइम दो कतारों के बीच 50 से 60 सेंटीमीटर की दूरी रखनी चाहिए. जबकि पौधों के बीच 40 सेंटीमीटर से ज्यादा दूरी होनी चाहिए. इसका चार किलो बीज प्रति एकड़ लगाना चाहिए. जमीन के अंदर बीज 4 से 5 सेंटीमीटर नीच डालना चाहिए. ज्यादा नीचे डालने के बाद बीज बाहर नही निकल पाता है.
संकर बीटी किस्म के पौधों को खेत में लगाते टाइम दो पौधों को लगभग 60 से 80 सेंटीमीटर की दूरी पर लगायें. जबकि कतारों में इसे 100 सेंटीमीटर से ज्यादा दूरी पर लगाया जाना चाहिए. इस किस्म के पौधों को फैलने के लिए ज्यादा दूरी की आवश्यकता होती है. इसका 450 ग्राम बीज प्रति बीघा में उगाना चाहिए.
अधिक क्षारीय भूमि में कपास की पैदावार मेढ़ों के ऊपर बीज लगाकर की जाती है.
खरपतवार नियंत्रण : कपास की खेती में खरपतवार नियंत्रण की जरूरत फूल लगने के टाइम ज्यादा होती है. उस दौरान खेत में कई तरह की खरपतवार उग आती है. जिनमें कई तरह के कीट जन्म लेते हैं. इन कीटों की वजह से पौधों पर कई तरह के रोग लग जाते हैं. इन रोग से बचाने के लिए कपास की खेती में खरपतवार नियंत्रण पहले से ही किया जाता है.
इसके लिए कपास में कई बार नीलाई गुड़ाई की जाती है. इसकी नीलाई गुड़ाई जब कपास 25 दिन की हो जाए तभी शुरू कर देनी चाहिए. जिससे पौधे को विकास करने में ज्यादा मद्द मिलती है. पहली नीलाई करने के बाद जब बारिश हो जाए तो उसके तुरंत बाद एक बार फिर से खेत की गुड़ाई कर देनी चाहिए. उसके बाद तीसरी गुड़ाई खेत में पहली सिंचाई के बाद करनी चाहिए.
आज कपास की पहली गुड़ाई किसान भाई हाथों से करते हैं. जिसके बाद विशेष प्रकार के हल से खेतों की गुड़ाई की जाती है. जिससे कपास में फूल और फल आने के टाइम तक तीन से चार गुड़ाई हो जाती है. जिसका असर पैदावार पर देखने को मिलता है.
उर्वरक की मात्रा : कपास की खेती के लिए खेत की जुताई के बाद लगभग 15 गाडी प्रति एकड़ के हिसाब से गोबर का खाद खेत में डालनी चाहिए. जिसके बाद उसे खेत में अच्छे से मिला दें. खेत में बीज की बुवाई के टाइम खेत में नत्रजन और फास्फोरस की उचित मात्रा खेत में किस्मों के आधार पर दें.
संकर और बीटी कपास के लिए जिंक सल्फेट की उचित मात्रा को मिट्टी में मिलकर खेत में छिड़क देनी चाहिए. इसके इस्तेमाल से पैदावार ज्यादा होती है. अमेरिकन कपास की किस्मों को फास्फोरस, डीएपी और सल्फर की उचित मात्रा देने पर पैदावार पर फर्क दिखाई देता है.
कपास की सिंचाई : कपास की खेती को काफी कम पानी जरूरत होती हैं. अगर बारिश ज्यादा होती है तो इसे शुरूआती सिंचाई की जरूरत नही होती. लेकिन बारिश टाइम पर नही होने पर इसकी पहली सिंचाई लगभग 45 से 50 दिन बाद या जब पत्तियां मुरझाने लगे तब कर देनी चाहिए.
कपास के पौधे के बारें में कहा जाता है कि कपास के पौधे को जितनी ज्यादा धूप लगती वो उतना ज्यादा विकसित होता है. इसलिए पहली सिचाई करने के बाद इसकी सिंचाई आवश्यकता के अनुसार करनी चाहिए. लेकिन जब पौधे पर फूल बनने लगे उस टाइम खेत में नमी की मात्रा उचित बनाए रखे. लेकिन ज्यादा पानी ना दे. क्योंकि उचित मात्रा में नमी होने के कारण फूल झड़ते नही हैं. जबकि ज्यादा पानी देने पर फूल खराब होकर नीचे गिर जाते हैं.
फूल से टिंडे बनने के बाद कपास को पानी की ज्यादा जरूरत होती है. इस दौरान खेत में 15 दिन के अंतराल में पानी देना चाहिए. जिससे टिंडों का आकार बड़ा होता है और ज्यादा पैदावार मिलती है.
कपास में लगाने वाले रोग : आज कपास की किस्मों को रोग प्रतिरोधक बनाया गया है. जिस कारण कपास को काफी कम रोग लगते हैं. लेकिन फिर भी कुछ रोग होते हैं जो पौधों पर जरुर पाए जाते हैं, जो कीटों की वजह से होते हैं. जिनके बारें में हम आपको जानकारी देने वाले हैं.
हरा मच्छर : हरा मच्छर का प्रभाव नई पत्तियों पर ज्यादा देखने को मिलता है. इस तरह का कीट पत्तियों की निचली सतह पर शिराओं के पास बैठकर रस चूसते रहते हैं. इन कीटों के रस चूसने की वजह से धीरे धीरे पत्तियां पीली पड़ जाती है. और कुछ दिन बाद टूटकर नीचे गिर जाती हैं. इसके बचाव के लिया इमिडाक्लोप्रिड 17.8 एस एल या मोनोक्रोटोफॉस 36 एस एल की उचित मात्रा का छिडकाव पौधों पर करें.
सफ़ेद मक्खी भी पत्तियों पर ही पाई जाती है. ये भी पत्तियों की निचली सतह पर बैठकर रस चुस्ती हैं. रस चूसने के दौरान ये पत्तियों पर चिपचिपा पदार्थ छोड़ देती हैं. जिससे पौधे को पत्ता मरोड़ नामक रोग लग जाता है. इसके लगने पर पात्तियां जल्द ही सूख कर गिर जाती हैं. इसकी रोकथाम के लिए हाल में कई किस्में विकसित की गई हैं जिन पर ये रोग नही लगता. जिनमें बीकानेरी नरमा, आर एस- 875, मरू विकास किस्में शामिल हैं. अन्य किस्मों पर इसके बचाव के लिए ट्राइजोफॉस 40 ई सी या मिथाइल डिमेटान 25 ई सी की उचित मात्रा में पौधे पर छिडकाव करें.
चितकबरी सुंडी : चितकबरी सुंडी का प्रकोप पौधों पर जब फूल और टिंडे बनते हैं तब देखने को मिलता हैं. इसकी वजह से पौधे के शीर्ष भाग सूखने लगते हैं. और टिंडे की पंखुड़ी पीली पड़ने लगती है. जिससे टिंडे के अंदर पाई जाने वाली कपास खराब हो जाती है. इसके रोकथाम के लिए मोनोक्रोटोफॉस 36 एस एल, क्लोरपायरीफास 20 ई सी, मेलाथियान 50 ईसी में से किसी भी एक की उचित मात्र को पानी में मिलकर पौधों पर छिडके.
गुलाबी सुंडी या इल्ली – इस कीट की मादा पौधे के कोमल भागों पर एक – एक करके अंडे देती है| अन्डो से निकलने वाली सुंडी गुलाबी रंग की होती है, जो डोडीयों में छेद कर घुस जाती है और प्रभावित पुष्पों को इल्ली, लार से बने रेशमी धागे से कात देती हैं, जिसके कारण पुष्प पूर्ण विकास नहीं कर पाते एवं प्रभावित पुष्प जल्दी ही झड़ जाते हैं| इस कीट की अंतिम पीढ़ी की इल्लियाँ टिंडों के अंदर दो बीजों को जोड़कर उसके अन्दर शीत निष्क्रियता में चली जाती हैं| इस कीट का आर्थिक क्षति स्तर 8 वयस्क प्रति ट्रेप लगातार तीन दिन तक या 10 प्रतिशत जीवित इल्ली से ग्रसित पुष्प कलिकाएँ व टिन्डे|
तेला : फसल पर तेला रोग भी कीटों की वजह से लगता हैं. इसके कीट का रंग काला होता है. जो आकर में छोटा दिखाई देता हैं. यह कीट नई आने वाली पत्तियों को ज्यादा नुकसान पहुंचता है. इसके रोकथाम के लिए इमिडाक्लोप्रिड 17.8 एस.एल या थायोमिथाक्जाम 25 डब्लू जी की उचित मात्रा का छिडकाव पौधों पर करें.
तम्बाकू लट : पौधे को ये कीट सबसे ज्यादा नुक्सान पहुँचाता है. यह कीट एक लम्बे कीड़े के रूप में होता है. जो पत्तियों को खाकर उन्हें जालीनुमा बना देता हैं. जिससे पौधों पर पत्तियां सम्पूर्ण रूप से ख़तम हो जाती हैं. इसके बचाव के लिए फलूबैन्डीयामाइड 480 एस, थायोडिकार्ब 75 एस पी और इमामेक्टीन बेंजोएट 5 एस जी का छिडकाव पानी में मिलकर करना चाहिए.
झुलसा रोग : पौधों पर लगने वाला झुलसा रोग सबसे खरनाक रोग हैं. इसके लगने पर टिंडों पर काले रंग के चित्ते बनने लगते हैं. और टिंडे समय से पहले ही खिलने लग जाते हैं. जिससे उनका रेशा भी खराब हो जाता है. इसके लगने के कुछ दिन बाद पौधा ख़तम हो जाता हैं. इसकी रोकथाम के लिए काँपर ऑक्सीक्लोराइड का छिडकाव पौधे पर करना चाहिए. इसके अलावा इसके बचाव के लिए बीज को बोने से पहले बाविस्टिन कवकनाशी दवाई से उपचारित कर लेना चाहिए.
पौध अंगमारी रोग : इस रोग के लगने पर कपास के टिंडों के पास वाले पत्तों पर लाल कलर दिखाई देने लगता है. इसके लगने पर खेत में नमी के होने पर भी पौधा मुरझाने लगता हैं. जिसके कुछ दिन बाद ही पौधा पूरी तरह सुखकर नष्ट हो जाता है. इसके बचाव के लिए एन्ट्राकाल या मेन्कोजेब का छिडकाव पौधों पर करना चाहिए.
अल्टरनेरिया पत्ती धब्बा रोग : अल्टरनेरिया पत्ती धब्बा रोग बीज जनित रोग होता है. इसके लगने पर शुरुआत में पौधों की पत्तियों पर भूरें रंग के छोटे धब्बे बनने लगते हैं. जो बाद में कालेभूरे और गोलाकार बन जाते है. इसके लगने पर पत्तियां जल्द ही गिर जाती हैं. इसका असर पैदावार पर देखने को मिलता है. इसके बचाव के लिए स्ट्रेप्टोसाइक्लिन का छिडकाव पौधों पर करें.
जड़ गलन रोग : जड़ गलन की समस्या पौधों में ज्यादा पानी की वजह से होता है. इसकी रोकथाम का सबसे अच्छा उपचार खेत में पानी जमा ना होने दें. जड़ गलन का रोग मुख्य रूप से बारिश के मौसम में देखने को मिलता है. इसके लगने पर पौधा शुरुआत में मुरझाने लगता है. जिसके बाद धीरे धीरे पौधा पूरी तरह से सुखकर नष्ट हो जाता हैं. इसके बचाव के लिए बीज को खेत में लगाने से पहले ही कार्बोक्सिन 70 डब्ल्यूपी 0.3% या कार्बेन्डाजिम 50 डब्ल्यूपी 0.2% से उपचारित कर लेना चाहिए. इसके अलावा जब खेत में कपास की बुवाई करें तब उसके साथ में मोठ की फसल की भी बुवाई कर दें. अगर प्रकोप ज्यादा दिखाई दे तो कुछ साल तक उस खेत में कपास की पैदावार ना करें.
कपास में कीटनाशकों का उपयोग
किसान मित्रों आज के समय में कीटनाशकों का उपयोग करना बेहद जरुरी हैं। और एक अच्छे कीटनाशक का चुनाव करना भी। डेनिटोल आपकी सभी उम्मीदों पर बिलकुल खरा उतरता है। डेनिटोल एक ऐसी तकनीक से बना प्रोडक्ट है जो गुलाबी सुंडी (इल्ली) पर पूरी तरह नियंत्रण करता है। दोस्तों गुलाबी सुंडी या इल्ली आपके कपास के टिंडे में नुकसान करना शुरू करती है और शुरुवाती दौर में ये कपास के फूल पर पायी जाती है। ये फूल से कपास के परागकण खाने के साथ-साथ जैसे ही कपास का टिंडा तैयार होता है ये उसके अंदर चली जाती है और टिंडे के अंदर के कपास के बीज को खाना शुरू कर देती है। इस कारण कपास का टिंडा अच्छी तरह से तैयार नहीं हो पाता है और कपास में दाग लग जाता है जिससे कई बार जब हम टिंडे से कपास निकालते है तो काला कपास निकलता है जो बाजार में बेचने लायक नहीं होता। इसी कारण गुलाबी सुंडी या इल्ली जब भी नुकसान पहुंचाती है हमें पूरा टिंडा खोना पड़ता है और हमारी फसल की उपज को नुकसान पहुंचता है।
डेनिटोल का उपयोग कैसे करें : आइये अब हम जानते की डेनिटोल का उपयोग कपास की फसल में कैसे करना है। गुलाबी सुंडी या इल्ली के रोकथाम के लिए आपको डेनिटोल के कम से कम 3 छिड़काव करने होंगे, आइये जानते है की ये छिड़काव आपको कब और कितनी मात्रा में करने है। कपास की बुआई के 40 से 45 दिन में कपास की फसल में फूल अवस्था पाई जाती है। जैसे ही आपके कपास में 20 से 30% फूल आना शुरू हो जाता है उसी दौरान आपको 15 लीटर पानी में 40 मिली डेनिटोल लेकर उसका छिड़काव आपको अपनी कपास की फसल पर पहला छिड़काव करना है। इस पहले छिड़काव के बाद आपको डेनिटोल का दूसरा छिड़काव पहले छिड़काव के 13 से 15 दिन के बाद करना है। इस छिड़काव की मात्रा भी 40 मिली प्रति 15 लीटर पानी में ही रहेगी। तीसरा छिड़काव आपको दूसरे छिड़काव के 15 दिन बाद करना है इस छिड़काव की मात्रा भी 40 मिली प्रति 15 लीटर पानी में ही रहेगी।
डेनिटोल इस्तेमाल करने के फायदे : भारत के कई प्रदेशो में किसानो ने डेनिटोल का इस्तेमाल करके गुलाबी इल्ली या सुंडी से 100 प्रतिशत छुटकारा पाया है ज्यादा जानकारी के लिए हमारी वेबसाइट www.danitolindia.com देखे और निचे दिए गए वीडियो को अच्छी तरह से देखे।
कपास की तुड़ाई : कपास की तुड़ाई मुख्य रूप से सितम्बर और अक्टूबर महीने के दौरान शुरू हो जाती है. कपास की पहली तुड़ाई जब कपास की टिंडे 40 से 60 प्रतिशत खिल जाएँ तब करनी चाहिए. उसके बाद दूसरी तुड़ाई सभी टिंडे खिलने के बाद करते हैं. जबकि ज्यादातर किसान भाई कपास की तुड़ाई कई बार में करते हैं.
पैदावार और लाभ : कपास की खेती से किसान भाइयों को अच्छीखासी आमदनी होती है. अलग अलग किस्मों से अलग अलग पैदावार होती हैं. जिनमें देशी किस्म से 20 से 25 क्विंटल प्रति हेक्टेयर और अमेरिकन संकर किस्म से 30 क्विंटल प्रति हेक्टेयर तक पैदावार हो जाती है. जबकि बीटी कपास की पैदावार 30 से 40 क्विंटल प्रति हेक्टेयर से भी ज्यादा होती है. कपास का बाज़ार भाव 5 हज़ार प्रति क्विंटल के हिसाब से रहता है. जिससे किसान भाई एक बार में कपास की खेती कर एक हेक्टेयर से तीन लाख से ज्यादा की कमाई कर सकते हैं.